लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी
भाग 80 देवयानी का विवाह सम्राट ययाति से होने जा रहा है, यह सूचना शर्मिष्ठा के लिए वज्रपात से कम नहीं थी । जितना संताप उसे यह जानकर हुआ कि देवयानी ने उसे उसकी दासी बनने का दंड दिया है , उससे अधिक संताप यह जानकर हुआ कि अब देवयानी हस्तिनापुर की महारानी बनने जा रही है । "हा दैव ! यह समाचार सुनने से पूर्व मेरी मृत्यु क्यों नहीं हो गई ? मेरे कान फट क्यों नहीं गये ? मेरा हृदय टुकड़े टुकड़े क्यों नहीं हो गया ? क्या अभी और भी बुरे समाचार मिलने बाकी हैं जो मेरे प्राण अभी भी इस शरीर में आसक्ति रखे हुए हैं और इसे छोड़ नहीं रहे हैं । मैंने "उन्हें" मन ही मन अपना स्वामी मान लिया था । उनकी प्रिया बनकर कितनी इतराती फिरती थी मैं ? मेरे स्वप्न में बस वो ही तो रहते थे । मैं अपनी कल्पनाओं में उनकी बांहों के झूले में झूलती रहती थी । यद्यपि मैंने उन्हें कभी देखा नहीं है तथापि चित्रलेखा ने उनका जो चित्र बनाया था , वह मेरी आंखों में बस गया है । वे मेरे शरीर में प्रण बनकर रह रहे हैं । अब मैं उनकी बांहों में देवयानी को कैसे देख सकूंगी ? वह दृश्य देखकर मेरा हृदय चूर चूर नहीं हो जायेगा ? मेरे संयम की और कितनी परीक्षाऐं शेष हैं भगवान ? क्या मेरे दुखों का कोई अंत है" ? शर्मिष्ठा की रुलाई फूट पड़ी ।
मनुष्य जब चारों ओर से असहाय हो जाता है , उसे कोई मार्ग नहीं सूझता है , आशा की कोई किरण नजर नहीं आती है , सारा जग अंधकारमय लगता है , तब मनुष्य की आंखें सावन की तरह बरसने लग जाती हैं । उसका अपने आंसुओं पर कोई नियंत्रण नहीं होता है । आंसू ही तो हैं जो मनुष्य को बुरे समय में सहारा देते हैं । बुरे समय में तो परिछाई भी साथ छोड़ देती है किन्तु आंसू बुरे समय में ही साथ देते हैं । अच्छे समय में तो हर कोई साथ होता है । जब हर कोई साथ होता है तब आंसू मनुष्य से दूरी बना लेते हैं । कभी कभार हंसी हंसी में भी आंसू आ जाते हैं पर वो आंसू कुछ अलग होते हैं । शर्मिष्ठा का मन किसी भी तरह धीरज नहीं धर रहा था । उसकी सब सखियों ने उसे शांत कराने के सारे प्रयत्न कर लिये लेकिन शर्मिष्ठा का रुदन बंद नहीं हुआ । उसकी दशा देखकर सारी सखियां व्याकुल हो गईं । वे असहाय सी लग रही थीं । उनके हाथ में कुछ भी नहीं था । विधाता के हाथ में कुछ था लेकिन वह सब कुछ देखकर भी मौन ही धारण किये रहे । विधाता का हृदय बहुत कठोर है । शर्मिष्ठा की ऐसी दयनीय दशा देखकर एक बार भी नहीं पिघला ।
आंसुओं की भी एक सीमा है । वे कोई सदानीरा नदी तो हैं नहीं जो सतत बहते रहते । जिस तरह बांध के पानी से नहरें तब तक चलती हैं जब तक बांध में पानी रहता है । बांध का पानी समाप्त होने पर नहरें भी सूख जाती हैं । शर्मिष्ठा का हृदय रूपी बांध सूख जाने पर उसके आंसुओ का सैलाब भी थम गया था । रोते रोते वह निढाल सी हो गई थी इसलिए उसे नींद आ गई । शर्मिष्ठा को सोया हुआ देखकर उसकी सारी सखियां एक एक कर अपने अपने घरों को चली गईं । शर्मिष्ठा के पास केवल दासियां ही रह गईं ।
थोड़ी देर बाद शर्मिष्ठा की आंख खुली । उसकी निगाहें छत पर जा टिकी । उसे छत पर एक परछाई सी नजर आई । वह परछाई बहुत तेज अट्टहास करने लगी । वह सोचने लगी "किसकी परछाई है ये ? क्यों अट्टहास कर रही है ये" ? शर्मिष्ठा की पेशानी पर बल पड़ गये । इतने में उसके कानों में एक भारी भरकम आवाज सुनाई पड़ी "मुझे पहचाना ? कौन हूं मैं ? नहीं पहचाना ना ? पहचानोगी भी कैसे ? कभी देखा ही नहीं मुझे । देखती भी कैसै , कभी मौका ही नहीं मिला आपको ? मैं समय हूं । लोग अपने अपने दृष्टिकोण से मुझे अच्छा और बुरा कहते हैं लेकिन मैं न अच्छा हूं और न ही बुरा । मनुष्य अपनी सुविधा के अनुसार मुझे अच्छा बुरा कहता रहता है । कल तक तुम राजकुमारी बनकर तितली की तरह उड़ती रहती थी, तब मैं तुम्हारे लिए अच्छा था । आज तुम निश्चेष्ट पड़ी हो इसलिए में बुरा हूं । और समझो स्वयं को बलवान ? मैं कहता था न कि वक्त बदलते देर नहीं लगती है । राजा कब रंक बन जाये और रंक कब राजा बन जाये , कुछ पता नहीं है । वो सब मेरी इच्छा से होता है" । वह परछाई एक बार फिर अट्टहास करने लगी ।
शर्मिष्ठा को लगा कि वह परछाई सही कह रही है क्योंकि मनुष्य का क्या बड़ा है ? यदि वह बड़ा बन भी गया है तो वह भी वक्त की ही देन है, इसमें मनुष्य का क्या है ? अब उसे ही देख लो । कल तक वह दैत्य वंश की राजकुमारी थी , आज वह एक अकिंचन देवयानी की दासी बन गई है । ये वक्त का ही तो करिश्मा है जो एक राजकुमारी दासी और एक अकिंचन महारानी बन गई । शर्मिष्ठा का समय ठीक नहीं चल रहा है । पर इसमें उसका क्या दोष ? वक्त पर किसी का नियंत्रण हुआ है क्या कभी ? वक्त बुरा आया तो सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को "मसान" पर शव जलाने की नौकरी करनी पड़ी । इसके बावजूद उन्होंने सत्य का मार्ग नहीं छोड़ा । उनके पुत्र रोहिताश्व की मृत्यु होने पर उनकी पत्नी रानी तारामती उसके शव को अंतिम संस्कार के लिए हरिश्चंद्र के मसान पर लेकर आई तब हरिश्चंद्र ने शव का अंतिम संस्कार करने का शुल्क मांगा । बेचारी रानी स्वयं निर्धन थी, शुल्क कैसे देती ? रानी तारामती ने अपने पुत्र का वास्ता दिया लेकिन राजा हरिश्चंद्र अपने सत्य के मार्ग से डिगे नहीं और उन्होंने शुल्क के रूप में तारामती की आधी साड़ी लेकर ही शव का अंतिम संस्कार करने की अनुमति दी । यह वक्त ही था जिसने राजा हरिश्चंद्र की ऐसी विकट परीक्षा ली थी जिसमें वे उत्तीर्ण हुए थे ।
तो क्या वक्त उसके लिए भी कुछ संदेश देना चाहता है ? देवयानी की दासी बनकर वह न केवल अपने माता पिता को दुविधा से बाहर निकाल पायेगी अपितु दैत्य वंश की रक्षा भी कर लेगी । इससे दैत्य राज्य सुरक्षित रहेगा । उसे महर्षि दाधीच का प्रसंग भी याद आ गया । किस तरह त्वष्टा के पुत्र विश्व रूपा का इंद्र के द्वारा वध करने के पश्चात महर्षि त्वष्टा ने यज्ञ कुंड से वृत्रासुर की उत्पत्ति की और उसने स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लिया । उसकी शक्तियों के सम्मुख देवतागण असहाय नजर आने लगे थे । तब महर्षि दाधीच ने देवताओं के कल्याण को ध्यान में रखते हुए अपना उत्सर्ग कर अपनी अस्थियां देवराज इन्द्र को दान कर दी थीं । उन अस्थियों से देवराज इन्द्र ने एक "वज्र" बनाया और उस वज्र से वृत्रासुर का वध किया । देवलोक को बचाने के लिए महर्षि दाधीच आगे आये थे न ? उन्होंने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था न ? यदि दैत्य वंश को बचाने के लिए यह अवसर उसके सम्मुख उपस्थित हुआ है तो इसे ईश्वर की कृपा ही समझनी चाहिए । ऐसा सोचते ही शर्मिष्ठा की आंखों के सामने से अंधेरा छंटने लगा था ।
अब वह शांत मन से विचार करने लगी । देवयानी की दासी बनकर रहना होगा उसे । देवयानी जहां जायेगी, उसे भी वहीं जाना होगा । देवयानी का विवाह सम्राट ययाति से निश्चित हो चुका है तो उसे भी देवयानी की दासी बनकर हस्तिनापुर जाना होगा । एक तरह से तो यह उसके लिए एक वरदान ही होगा क्योंकि उसने सम्राट ययाति को अपना पति मान लिया था । अब वह उनके ही महल में रहेगी । यह अलग बात है कि वह महारानी के रूप में नहीं अपितु महारानी की दासी के रूप में रहेगी । चाहे जैसे भी हो , रहेगी तो सम्राट के अंत:पुर में ही । उसे तो सम्राट के दर्शन प्रतिदिन हो जाया करेंगे । यही तो चाहती थी वह !
"अरे, यह तो उसने सोचा ही नहीं था ? यह तो संभव है ना ? दासी के रूप में ही सही, वह सम्राट की सेवा तो कर सकेगी । अपने प्रियतम की बांहों में कसने का आनंद चाहे न मिले लेकिन उनके चरण स्पर्श करने का सौभाग्य तो मिलेगा न" । इस दृष्टिकोण से सोचते ही शर्मिष्ठा की दुनिया एकदम बदल गई । "प्रेम का नाम क्या केवल प्राप्त करना ही है ? प्रेम तो देने का दूसरा नाम है । देवयानी की दासी बनकर वह सम्राट और अपने प्रियतम की खूब सेवा कर सकेगी । उन्हें निहार कर वह निहाल हो जाया करेगी । प्रेम केवल "संयोग" ही नहीं होता है, "वियोग" भी प्रेम ही होता है । यह बात उसके मस्तिष्क में पहले क्यों नहीं आई ? यदि पहले आ जाती तो उसे इतना क्लेश नहीं पहुंचता" ।
शर्मिष्ठा अपने पलंग पर उठकर बैठ गई । अब वह शोक से उबर गई थी । उसके चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आ गये थे । अपने प्रियतम के दर्शन हो जायें, इसके लिए उसे देवयानी की दासी बनना भी स्वीकार्य हो गया था । वह एकदम से खड़ी हुई और सामने लगे दर्पण में अपना चेहरा देखने लगी । एक दिन में ही उसका चेहरा कुम्हला गया था । उसने निश्चित कर लिया था कि अब वह देवयानी की दासी अवश्य बनेगी । यह सोचकर उसके मन का बोझ बहुत हलका हो गया था ।
श्री हरि 25.8.23